Monday, December 13, 2021

आंखों पर चश्मा


एक छोटे बच्चे की आंखों पर चश्मा देख कर हम पूछ बैठे -

भाई इस उम्र में चश्मा कैसे ?
वह बोला - सर दूर का है। हमने मतलब पूछा तो बोला सर इसके ना लगाने से दूर के लोग हमें ठीक प्रकार से देख नहीं पाते। मैंने कहा भाई यह चश्मा उनकी आंखों पर नहीं तुम्हारी आंखों पर है, ठीक से देखना और ना देखना तुम्हारे लिए है। वह तो जैसा देख सकते हैं वैसा ही देखेंगे। फिर तुमने चश्मा लगा रखा है अथवा नहीं इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता।
यहां तक तो मुझे लगा कि मैं समझदार और बच्चा मूर्ख है। किन्तु आगे के उसके वाक्य ने जैसे हम दोनों की भूमिका ही बदल दी। वह बोला - सर यही तो मैं समझाने का प्रयास कर रहा था अपने माता पिता को कि लोगों की नजर में हम ठीक दिख सकें इसके लिए हमें किसी प्रकार का चश्मा पहनने की आवश्यकता नहीं है। यह तो अपनी ही दृष्टि ठीक करने के लिए है। जब मैंने इसका अर्थ पूछा तो वह बोला - सर जिसे देखो चश्मा लगाए हुए बैठा है -
- किसी ने यह सोचकर अमीरी का चश्मा लगा रखा है कि लोग उसे अमीर समझे
- कोई बहादुरी के चश्मे के भीतर मानसिक तनाव और भय को छुपाए बैठा है
- कोई नैतिकता के चश्मे से अनैतिकता छुपाने को प्रयासरत है
- वह जो अज्ञानी है उसे कोई मूर्ख ना कह दे इसलिए उसने ज्ञान का चश्मा पहन रखा है।
मुझे तो इतना ही समझ आया सर कि यह सभी दिखावे के चश्मे हैं, इनके भीतर की वास्तविकता एक न एक दिन तो प्रकट होगी ही।
जिस दिन यह दोहरी वास्तविकता सामने आएगी उस दिन जो अपने हैं उनकी पीठ दिखाई देगी और जिनके चेहरे दिखाई दे रहे होंगे अपने नहीं होंगे।

Tuesday, October 5, 2021

आश्वासन (एक शिक्षक का एक गुरु को)

 आश्वासन

आँधियों के दौर में भी, मैं दिया बनकर जलूँगा,
कुण्ड कितना भी हो मैला, मैं कमल बनकर खिलूँगा।
आपकी शुभ प्रेरणा ने, मुझको एक शिक्षक बनाया,
आपकी उस प्रेरणा को व्यर्थ मैं जाने न दूंगा।
आँधियों के दौर में भी, मैं दिया बनकर जलूँगा ....
जो अनल का ज्वार देकर, आपने पोषित किया है,
जो विजय का मंत्र देकर, मुझको अनुरक्षित किया है,
वह प्रलय का गान बनकर, धमनियों में बह रहा है,
उस रक्त का हर एक कतरा, साथ ले आगे बढूंगा।
आँधियों के दौर में भी, मैं दिया बनकर जलूँगा .....
गर रुदन के आंसुओं पर करुण मन ऐंठा रहा तो,
यदि धरा की चीख सुनकर शांत सा बैठा रहा तो,
कठिन राहें हैं अगर यह सोंचकर पीछे हटा तो,
आपके उस वंश को शायद कलंकित ही करूंगा।
आँधियों के दौर में भी, मैं दिया बनकर जलूँगा .....
है विधाता, आप मेरी साधना को शक्ति देना,
इस समर के प्रभंजन में भी विजय अनुरक्ति देना,
हो दिव्यता का आचरण और कर्म में पुरुषार्थ मेरे,
दूत बनकर प्रगति के अभियान को रक्षित करूंगा।
आँधियों के दौर में भी, मैं दिया बनकर जलूँगा .....
- डॉ. विवेक विजय

Wednesday, September 29, 2021

नेताजी पार्ट 1


एक लेखक मित्र विगत कुछ दिनों से लिखने में व्यस्त दिख रहे थे। मैंने लेखन का विषय पूछा तो ज्ञात हुआ कि एक बड़े नेताजी ने पार्टी बदली है जो इन लेखक महोदय के मित्र हैं। नेताजी कल तक जिन व्यक्तियों और विचारधारा का विरोध कर रहे थे आज उसी के समर्थन में उनको डींगें हाँकनी हैं। मैंने कहा नेताजी अपनी डींगें खुद ही हाँक लेंगे तुम्हारा इसमें क्या काम? वे बोले, नेताजी की डींगों से अब काम नहीं चल पा रहा है। चाहते हैं कि मैं उनके इस दल बदलने को उचित ठहराते हुए एक लेख लिख सकूं। मेरे पास अपने इन लेखक मित्र का उत्साहवर्धन करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। लेखक महोदय अपना लेख पूरा कर पाते इससे पूर्व ही उछल कूद वाले नेताजी कहीं ओर कूद गये। मुझे बड़ा अफसोस हुआ। एक तो लेखक महोदय के लिए कि उनकी मेहनत बेकार हो गई, दूसरा उन लोगों के लिए जो कल तक एक पार्टी का झंडा हाथ में लेकर नेताजी जिंदाबाद, ...... पार्टी जिंदाबाद का नारा लगा रहे थे। पहला दुख अधिक गंभीर नहीं था किंतु दूसरा निस्संदेह भीतर से था। कारण कि इसमें अनेक ऐसे नौजवान भी दिखाई दे रहे थे जिनको अनेकों लेखक और वक्ता इस राष्ट्र का भविष्य कहते हैं। राष्ट्र सुधार की बात करने वाले इन अवसरवादी नेताजी ने न जाने कितने युवाओं की विचारधारा में अवसरवादिता घोल दी है नेताजी खुद भी नहीं जानते।

एक ऐसे ही अवसरवादी पगड़ी धारी नेताजी न जाने कितनों की पगड़ियां उछाल चुके हैं। ऐसे में नेताजी को कुछ भी कहना तो शब्दों का सार्वजनिक अपमान ही है किंतु दुख तो इस बात का है कि इनके साथ खड़े हुए लोग भी इनको समझने की भूल कर रहे हैं। 
स्वामी विवेकानंद कहते हैं - एक विचार लो और उसे अपना जीवन बना लो, जीवन का हर क्षण उसके लिए झोंक दो, वह विचार मिट्टी के हर कण में दिखाई देगा।  किसी के साथ खड़ा होना उसका प्रतीकात्मक सम्मान हो सकता है उसके विचारों के साथ खड़ा होना सार्थक सम्मान है। किंतु उसका क्या करें जो अवसरवादी बनकर हर दूसरे दिन अलग विचारों के साथ खड़ा है। 
दुख इस बात का नहीं है कि नेताजी का क्या होगा। चिंता तो इस बात की है कि इस भारत के भविष्य का क्या होगा जो नेता जी के साथ झंडा लिए चल रहा है। मेरा आग्रह नेताजी से नहीं अपितु उनसे है जो नेता जी को ताकत दे रहे हैं। तिरस्कार करना चाहिए ऐसे लोगों का जो उछल कूद संस्कृति के पोषक हैं।

जिंदगी जीते रहे जिन रास्तों को देखकर, 
एक अवसर क्या मिला वो रास्ते झुठला दिए |


Saturday, September 4, 2021

शिक्षक की आस


शिक्षक की  आस 


शुभकामनाओं की आस में दिन गिनते रहते थे,

बड़ी बेसब्री से इंतजार करते रहते थे|


उनके लिए शिक्षक दिवस बड़प्पन का एक एहसास था, 
अंधेरों को स्वर्णिम रश्मियों से रोशन कर दे, उस सूर्य सा दिव्य प्रकाश था।

हर वर्ष की भांति पकवानों का थाल सजाकर,
मन में भिन्न-भिन्न आशीर्वादों के शब्द बनाकर,
विश्वास का दीपक सजाए बैठे थे,
विद्यार्थियों के आने की आशा लगाए बैठे थे।

दिन भी ढलने लगा, सांझ भी चलने लगी,
उम्मीदों की बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगी।

सुबह तक जिनको अपने शिक्षक होने पर गुमान था, 
अपना कार्य, अपने पद की गरिमा जिन का सबसे बड़ा स्वाभिमान था,

सांझ के सूर्य के साथ उनकी आशाएं भी ढलने लगी, 
बदली हुई भावनाएं कड़वे शब्दों के रूप में निकलने लगी।

आक्रोशित देखकर पत्नी ने अपनी ही पढ़ाई सीख याद दिलाई,
फल की इच्छा में नहीं कर्म करते जाने में ही है भलाई। 

इतना सुनते ही अपनी गलती का एहसास हो गया,
मन के भीतर का तमस फिर से पुण्य प्रकाश हो गया। 

फिर जैसे ही भीतर गए मोबाइल पर वीडियो संदेश मिला, 
मन के भीतर उम्मीदों का कमल खिला।

विद्यार्थियों की ओर से भेजा गया यह संदेश सबसे बड़ा सम्मान था,
सोने से पहले एक बार पुनः उनको अपने शिक्षक होने पर अभिमान था।

विवेक

Monday, July 12, 2021

सुनने और समझने का समय


विगत लगभग दो वर्षों से सम्पूर्ण विश्व कठिनाईयों के विषम दौर से गुजर रहा है। किसी ने अपने खोये हैं तो किसी ने सपने खोये हैं। दुखी सब हैं, कोई तन से, कोई धन से तो कोई मन से। अनेकों ऐसी कहानियाँ रोंगटे खड़े करती हुई गुजर गई जिनमें पीड़ा चरम सीमा से भी परे थी।

दो महीने से अधिक का समय हो गया एक 45 वर्षीय युवह को अस्पताल में भर्ती हुए। घर पर पिता, लगभग दो वर्ष के अन्तर का भाई, दोनों भाईयों की पत्नियाँ और चार बच्चे। दो माह पूर्व सब कुछ व्यवस्थित ही था, आपस में प्रेम की भी कोई कमी नहीं। विगत 60 दिनों के भीतर बीमार युवक की पत्नी एवं भाई पूर्ण मनोयोग से उसे स्वस्थ देखने हेतु जी जान से लगे हुए थे। अचानक से खबर आयी कि स्वस्थ भाई की पत्नी मानसिक व्यथा को बरदाश्त नहीं कर पायी और मौत की गोद में समा गई। आगे क्या होगा, कैसे सब कुछ ठीक होगा, यह तो वह जाने जिसने परिस्थितियाँ पैदा की। चिंतन का विषय यह है कि क्या इस सबके बीच तन, मन एवं धन से अधिक स्वस्थ व्यक्ति कुछ योगदान दे सकते हैं।

आँकलन करने पर लगेगा कि विगत दिनों में जो सर्वाधिक खोया है वह है - सकारात्मक चिंतन, आशा और विश्वास।

क्यों हुआ, कैसे हुआ इसका तर्क तो अलग विषय है किंतु जो मान सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर हमने इन तीनों की कमी को अनुभव किया है, वे आवश्यक रूप से कुछ कर सकते हैं। जो भी स्वयं को बुद्धिजीवी मानते हैं उनका उत्तरदायित्व है कि कष्ट और पीड़ा सह रहे जानने वाले परिवार के प्रत्येक सदस्य से लगातार संपर्क में रहें। शारीरिक बीमारी से अधिक मानसिक दुविधा से बाहर निकालने के लिए मनोबल बढ़ायें।

एक उदाहरण महाभारत से याद आता है जब युधिष्ठिर सहित सभी पांडव जुएँ में हारकर अत्यंत दुखी होकर वनवास काट रहे थे। तभी एक ऋषि ने आकर नल और दमयंती की कथा सुनाई। ऐसी कथा जिसमें पांडवों से भी अधिक कष्ट होने के बाद भी नल ने हिम्मत नहीं हारी।

प्रश्न यह भी उठा कि पांडव स्वयं इतने समझदार थे कि इस प्रकार की कथा एक दूसरे को सुनाकर मनोबल ऊपर उठा सकते थे फिर किसी अन्य की आवश्यकता क्यों?

इसका उत्तर यही है कि जब पूरा परिवार अवसाद अथवा तनाव की स्थिति में हो तो स्वयं का मनोबल उठाये रखना भी कठिन कार्य है, ऐसे में परिवारजनों के साथ बातचीत झंझलाहट अथवा चिड़चिड़ेपन से शुरु होकर वहीं समाप्त हो जाती है।

बुद्धिजीवी व्यक्ति दो कार्य सहज कर सकते हैं -

1. सुनने का - पीड़ा से ग्रस्त व्यक्ति को सुनने मात्र से उसका भारीपन कम हो जाता है।

2. समझकर समझाने का - पीड़ित व्यक्ति के कष्ट का कारण समझकर उसके अनुसार मनोबल को ऊँचा उठाने हेतु थोड़ा समझाने का प्रयास करें।

 

"कष्ट में जो जी रहे हैं एक पग उन तक बढ़ा लो,

कुछ रुदन के आंसुओं में एक क्षण अपना मिला लो।"

 

-विवेक

 

Sunday, June 13, 2021

कुछ दिन के लिए प्रयास करके देखें


चर्चा जब बहस बन जाती है तो दो पक्ष स्पष्ट रूप से आमने सामने दिखाई देते हैं। जब तक स्वयं को श्रेष्ठ बताते हैं तब तक सब कुछ ठीक ही होता है, समस्या तब पैदा होती है जब श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए एक पक्ष दूसरे को नीचा सिद्ध करने का प्रयास करने लगता है। बीते दिनों ऐसी ही एक बहस आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा के बीच छिड़ गई। कौनसा विषय अधिक श्रेष्ठ है यह तो वही बता सकता है जिसे दोनों में महारथ हासिल है, कदाचित ऐसे महारथियों का जन्म होना अभी शेष है।

अन्ततः सभी ने अपने-अपने निर्णय ले लिए जिसमें अधिकांश के मुँह से कहते सुना गया - भारतीय चिकित्सा पद्धति व्यक्ति को स्वस्थ रखने का कार्य ज़्यादा अच्छे से कर सकती है, वहीं अस्वस्थ हो जाने पर आधुनिक चिकित्सा प्रणाली अधिक बेहतर तरीके से शारीरिक राहत प्रदान कर सकती है।

इस संपूर्ण चर्चा-परिचर्चा के बीच सभी ने एक स्वर से स्वीकार किया कि योगिक जीवन शैली शरीर और मन दोनों के लिए संजीवनी का कार्य कर सकती है। इसे कुछ हद तक अपनाने का यह अत्यधिक उपयुक्त्त समय है। जिस प्रकार दीपावली के समय चारों ओर रोशनी बिखरती दिखाई देती है, होली पर रंगों की छटा दिखने लगती है, वर्ष के आरंभ में बदलाव के संकल्प उभरते हैं, 15 अगस्त से पूर्व तिरंगे दिखने लगते हैं, तंबाकू निषेध दिवस पर नशे के विरुद्ध स्वर तेज़ होने लगते हैं, वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के समय योगिक वातावरण बनना चाहिए।

कुछ दिन के लिए ही सही किंतु योगिक जीवन शैली को जीने का प्रयास तो करना ही चाहिए, 7 दिन - 15 दिन अथवा उससे अधिक का संकल्प। सुबह जल्दी उठना, रात को जल्दी सोना, समय पर भोजन, अनावश्यक वस्तुओं का त्याग, सामान्य व्यक्ति की भांति अपने कार्यों को स्वयं करने का प्रयास, साथ ही साथ कुछ देर आसन, प्राणायाम, ध्यान एवं कुछ स्वाध्याय।

कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है, योग दर्शन और अभ्यास के लिए अनेकों व्यक्ति प्रयासरत हैं। हम सभी के पास घर बैठे ही कोई ना कोई link अवश्य आ जाएगा। एक ही सूत्र है - करें योग, रहें निरोग।

है नहीं साहस अगर उस आसमां को छू सकें,

सीढ़ियों पर चढ़ रहे जो हाथ उनका साथ दें।

 

-विवेक 

Tuesday, May 18, 2021

बदलाव या बदला

 

अपने किये गये कर्मों का फल अच्छा या बुरा जैसा भी मिले उसकी स्वीकार्यता होती है, अथवा यों कहें कि उसके लिये हम तैयार रहते हैं। किंतु जब कभी ऐसे अपराध के लिए सजा मिलती है जिससे कभी कोई लेना देना नहीं रहा तब कष्ट और कठिनाइयां दो प्रकार की मनःस्थिति निर्मित करती हैं -

बदलाव अथवा बदला

कठिन परिस्थितियों को बदलाव के संकेत के रूप में स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिये छोटे-बड़े कष्ट ईश्वरीय उपकार की भाँति होते हैं।

वहीं दूसरी ओर कष्टदायक परिस्थितियों के साथ जिसके मन में द्वेष अथवा खिन्नता उत्पन्न होती है, उसमें बदले की भावना जन्म लेती है। न चाहते हुए भी ईश्वरीय इच्छा स्वीकार तो इन्हें भी करनी ही पड़ती है।

सनातन संस्कृति में अध्यात्म की छोटी-छोटी क्रियाओं का अभ्यास इसीलिये किया अथवा कराया जाता है ताकि परिस्थितियों की विषमता से मन को विचलित होने से रोका जा सके। वैचारिक रूप से जिसने स्वयं को समृद्ध बनाया है उसके लिये कठिन परिस्थितियां उस शाम के ढलते हुए सूर्य की भाँति है जो नयी सुबह के जन्म का कारण है। वह सुबह निश्चित ही मानवीय उत्कृष्टता का पथ है।

इस अंधेरी राह में भी जल रहा है इक दिया, शेष हैं बस कुछ प्रहर तू तनिक धीरज दिखा।

- विवेक

 


Monday, April 19, 2021

राम मेरे मन में है?

राम मेरे मन में है?

"भविष्य की जानकारी का होना बहुत बड़ी बात नहीं है लक्ष्मण। योग की कुछ विशेष क्रियाओं से कोई भी व्यक्ति किसी के भविष्य की जानकारी प्राप्त कर सकता है। बड़ी बात यह है लक्ष्मण कि विषम परिस्थिति सामने दिखने पर व्यक्ति की प्रतिक्रिया कैसी होती है?"

श्री राम ने यह सूत्र लक्ष्मण के माध्यम से हम सभी को तब दिया जब लक्ष्मण, माता जानकी को बाल्मीकि आश्रम छोड़कर पुनः अयोध्या लौट आये थे। वन से अयोध्या आते समय लक्ष्मण के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उनने मंत्री सुमंत से यह जाना कि महाराज दशरथ को राम के जीवन में होने वाली इन सभी घटनाओं की पूर्व में ही जानकारी थी। संकट की घड़ी आने वाली है, इस जानकारी का कोई विशेष महत्त्व नहीं अगर संकट की घड़ी आने पर उसका सामना करने की हिम्मत ना हो। केवल विषम ही क्यों, सम और विषम दोनो ही परिस्थितियों में दी जाने वाली प्रतिक्रिया मनुष्य का कद तय करती है।

भगवान श्री राम और लक्ष्मण का यह संवाद इसलिए याद आ गया क्योंकि हाल ही में रामकथा कहने वाले एक पंडित जी परिस्थितियों के सामने हिम्मत हार गये और आत्महत्या जैसा कठिन कदम उठा डाला। जब वैश्विक परिस्थितियाँ ही प्रतिकूल हों तो व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुकूल होने की बात कैसे सोची जा सकती है?

रामनवमी का समय यही विचार करने का है कि वह जिसने यह सृष्टि बनाई है, वही इसका रक्षक भी है और पोषक भी है। उसके लिए यह सृष्टि कदाचित वैसी ही है जैसा हमारे लिए हमारा घर। फिर यह तो सोचने का विषय ही नहीं कि वह अपने इस घर को कैसे टूटने देगा। इस समय उसका श्री नाम अधरों पर ना भी हो तो कोई बात नहीं किंतु वह श्री राम संयम और धैर्य के रूप में उस हर व्यक्ति के मन में दिखाई देंगे जो विषम परिस्थितियों में भी संतुलित रहने का साहस दिखा सके।

 "जो समय को चीरता विश्वास के आंगन में है।

तमस में भी रश्मियों की आस जिस जीवन में है।

आँधियों में भी खड़ा जो धैर्य का दीपक लिये।

राम मुख पर ना दिखे श्री राम उसके मन में है॥"

Wednesday, April 7, 2021

हमारे समय में तो.....

 हमारे समय में तो.....

चित्रकार जो भी हो, कहानीकार हर कोई है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी कहानी खुद बनाता है, कोई लिख देता है तो कोई मन के एक कौने में उसे दबा कर रख देता है । कभी ना कभी बातों-बातों में कुछ अंश निकल भी जाते हैं।

जैसे अधिकांश काल्पनिक कहानियाँ "एक बार की बात है" से प्रारंभ होती है, वैसे ही मन की इन कहानियों की शुरूआत "हमारे समय में तो" से शुरू होती है। इनका आरंभ जब कभी भी हुआ होगा तो ये एक समय के अनुभव को दूसरे समय तक पहुँचाने के काम आती रही होगी। किंतु समय की गति के साथ इन "हमारे समय में तो" प्रकार की कहानियों के उद्देश्य और प्रस्तुतीकरण के तरीके बदलते गए।

अब इनके उद्देश्य चार प्रकार के दिखाई देते हैं -

1. अपने अनुभव से अगली पीढ़ी को सिखाने हेतु

2. बदलते समय में बदलते संसाधनों के कारण होते जा रहे बेहतरीन समय की तुलना में पहले के समय को मूल्यवान बनाकर प्रस्तुत करने हेतु

3. परंपरावादी और हठधर्मियों का अपने अस्तित्व को बनाये रखने हेतु

4. खुद के किये गये कार्यों का लेखा-जोखा बढ़ा-चढ़ाकर एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने हेतु

 वास्तव में तो इनमें से पहला ही है जो किसी प्रकार से लाभप्रद है, शेष तो संतुष्टि-असंतुष्टि के मनगढ़ंत उपाय हैं।

 "हमारे समय में तो" के प्रस्तुतकर्ता को समझना चाहिये कि यह प्रस्तुतीकरण उसी का हो सकता है जिसका समय अब नहीं, जो समय के साथ स्वयं को आगे ले जाने में सक्षम नहीं हो पाया।

युगऋषि कहते हैं -

"भूत का विश्लेषण और भविष्य का चिंतन उतना ही हो जिससे स्वयं के अथवा किसी अन्य के वर्तमान को संवारने में सहयता मिल सके।"

इस प्रकार के चिंतन को अपना सकने पर मनुष्य के लिए "हमारे समय में तो" जैसी कहानियाँ मात्र अनुभव का लाभ देने तक सीमित हो सकेगी।

Tuesday, March 30, 2021

इस बार की होली - मेरी अपनी

 

इस बार की होली - मेरी अपनी

 

खुशियों के रंग और स्नेह की मिठास का प्रतीक पर्व है - होली।

हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी त्यौहार तो अपनी तिथी से आ गया किंतु उत्साह, उल्लास और उमंग के प्रतीक सिमट गए। मन तो पहले से ही अलग अलग चल रहे थे, इस दो गज की दूरी ने शारीरिक दूरियां भी बढ़ा दी है। तकनीकी दूरी कम ना हो इसके चलते कुछ संदेशों का आदान-प्रदान अवश्य हुआ है। इनमें कदाचित 5 प्रतिशत ही हैं जो खुद से लिखे गए हैं, शेष तो किसी के किसी को ही चिपक रहे हैं।

ये सब वैसे तो परिस्थितिजन्य है, किंतु जो चुनिंदा लोग सोंच सकते हैं उनके लिए चिंतनपरक भी है।

इस समय भरतभूमि पर जीवित प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह ऐसा पहला अवसर है जब होली जैसे त्यौहार को मनाने का आधार सरकार द्वारा जारी की गई मार्गदर्शिका है। वास्तव में तो यह पहला अवसर है जब ईश्वर ने निर्णय लेने के सभी अधिकार मनुष्य से छीनकर अपने हाथों में ले लिये हैं। यहाँ तक कि दूसरों से मिलना, उनके साथ समय बिताना, किसी अच्छे स्थान पर घूमकर आना जैसे निर्णय लेने के लिए भी मनुष्य स्वतंत्र नहीं रह गया है।

फिर कैसे खुशियों का रंग लगे? कैसे स्नेह की मिठास अपनों तक पहुँचे? कैसे होली का उल्लास मन को हर्षित करे?

इन प्रश्नों के उत्तर व्यावहारिक तौर पर किसी के पास दिखाई नहीं देते।

चिंतनशील व्यक्ति जब गहराई से विचार करते हैं तो समझ आता है कि ईश्वर ने मनुष्य को खुद को जानने के लिए एवं उस समझ से सामाजिक नवनिर्माण में अपना योगदान देने के लिए सर्वशक्तिमान बनाकर भेजा था। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाए कि मनुष्य ने चालाकी से इस क्रम को बदल दिया है। मनुष्य खुद को जानने से अधिक दूसरों को मानने एवं उनकी समझ के आधार पर विकास के क्रम में लग गया। परिणामतः सामाजिक नवनिर्माण की गति भले ही कम नहीं हुई हो किंतु स्वयं को जानने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया।

प्रकृति कहें अथवा ईश्वर, सभी शक्तियाँ इस समय मनुष्य को भीड़ भरे अकेलेपन से नवाचार के एकांत की ओर धकेल रही हैं। एकांत में खुद के पास बैठकर, खुद के विषय में चिंतन करना और उस आधार पर स्वयं को परिष्कृत करने को युगऋषि ने जीवन साधना नाम दिया है।

इस परिष्कृत करने की यात्रा में खुशियों के रंगों के स्थान पर आनंद का रस है, स्नेह की मिठास के स्थान पर अपनों का विश्वास है।

 

इस बार की होली मेरी अपनी हो, जिसमें -

 

खुशियों के रंगों का आभास सीमित ना हो,

अपनों पर अपनों का विश्वास परिमित ना हो।