Wednesday, September 29, 2021

नेताजी पार्ट 1


एक लेखक मित्र विगत कुछ दिनों से लिखने में व्यस्त दिख रहे थे। मैंने लेखन का विषय पूछा तो ज्ञात हुआ कि एक बड़े नेताजी ने पार्टी बदली है जो इन लेखक महोदय के मित्र हैं। नेताजी कल तक जिन व्यक्तियों और विचारधारा का विरोध कर रहे थे आज उसी के समर्थन में उनको डींगें हाँकनी हैं। मैंने कहा नेताजी अपनी डींगें खुद ही हाँक लेंगे तुम्हारा इसमें क्या काम? वे बोले, नेताजी की डींगों से अब काम नहीं चल पा रहा है। चाहते हैं कि मैं उनके इस दल बदलने को उचित ठहराते हुए एक लेख लिख सकूं। मेरे पास अपने इन लेखक मित्र का उत्साहवर्धन करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। लेखक महोदय अपना लेख पूरा कर पाते इससे पूर्व ही उछल कूद वाले नेताजी कहीं ओर कूद गये। मुझे बड़ा अफसोस हुआ। एक तो लेखक महोदय के लिए कि उनकी मेहनत बेकार हो गई, दूसरा उन लोगों के लिए जो कल तक एक पार्टी का झंडा हाथ में लेकर नेताजी जिंदाबाद, ...... पार्टी जिंदाबाद का नारा लगा रहे थे। पहला दुख अधिक गंभीर नहीं था किंतु दूसरा निस्संदेह भीतर से था। कारण कि इसमें अनेक ऐसे नौजवान भी दिखाई दे रहे थे जिनको अनेकों लेखक और वक्ता इस राष्ट्र का भविष्य कहते हैं। राष्ट्र सुधार की बात करने वाले इन अवसरवादी नेताजी ने न जाने कितने युवाओं की विचारधारा में अवसरवादिता घोल दी है नेताजी खुद भी नहीं जानते।

एक ऐसे ही अवसरवादी पगड़ी धारी नेताजी न जाने कितनों की पगड़ियां उछाल चुके हैं। ऐसे में नेताजी को कुछ भी कहना तो शब्दों का सार्वजनिक अपमान ही है किंतु दुख तो इस बात का है कि इनके साथ खड़े हुए लोग भी इनको समझने की भूल कर रहे हैं। 
स्वामी विवेकानंद कहते हैं - एक विचार लो और उसे अपना जीवन बना लो, जीवन का हर क्षण उसके लिए झोंक दो, वह विचार मिट्टी के हर कण में दिखाई देगा।  किसी के साथ खड़ा होना उसका प्रतीकात्मक सम्मान हो सकता है उसके विचारों के साथ खड़ा होना सार्थक सम्मान है। किंतु उसका क्या करें जो अवसरवादी बनकर हर दूसरे दिन अलग विचारों के साथ खड़ा है। 
दुख इस बात का नहीं है कि नेताजी का क्या होगा। चिंता तो इस बात की है कि इस भारत के भविष्य का क्या होगा जो नेता जी के साथ झंडा लिए चल रहा है। मेरा आग्रह नेताजी से नहीं अपितु उनसे है जो नेता जी को ताकत दे रहे हैं। तिरस्कार करना चाहिए ऐसे लोगों का जो उछल कूद संस्कृति के पोषक हैं।

जिंदगी जीते रहे जिन रास्तों को देखकर, 
एक अवसर क्या मिला वो रास्ते झुठला दिए |


Saturday, September 4, 2021

शिक्षक की आस


शिक्षक की  आस 


शुभकामनाओं की आस में दिन गिनते रहते थे,

बड़ी बेसब्री से इंतजार करते रहते थे|


उनके लिए शिक्षक दिवस बड़प्पन का एक एहसास था, 
अंधेरों को स्वर्णिम रश्मियों से रोशन कर दे, उस सूर्य सा दिव्य प्रकाश था।

हर वर्ष की भांति पकवानों का थाल सजाकर,
मन में भिन्न-भिन्न आशीर्वादों के शब्द बनाकर,
विश्वास का दीपक सजाए बैठे थे,
विद्यार्थियों के आने की आशा लगाए बैठे थे।

दिन भी ढलने लगा, सांझ भी चलने लगी,
उम्मीदों की बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगी।

सुबह तक जिनको अपने शिक्षक होने पर गुमान था, 
अपना कार्य, अपने पद की गरिमा जिन का सबसे बड़ा स्वाभिमान था,

सांझ के सूर्य के साथ उनकी आशाएं भी ढलने लगी, 
बदली हुई भावनाएं कड़वे शब्दों के रूप में निकलने लगी।

आक्रोशित देखकर पत्नी ने अपनी ही पढ़ाई सीख याद दिलाई,
फल की इच्छा में नहीं कर्म करते जाने में ही है भलाई। 

इतना सुनते ही अपनी गलती का एहसास हो गया,
मन के भीतर का तमस फिर से पुण्य प्रकाश हो गया। 

फिर जैसे ही भीतर गए मोबाइल पर वीडियो संदेश मिला, 
मन के भीतर उम्मीदों का कमल खिला।

विद्यार्थियों की ओर से भेजा गया यह संदेश सबसे बड़ा सम्मान था,
सोने से पहले एक बार पुनः उनको अपने शिक्षक होने पर अभिमान था।

विवेक