Friday, August 5, 2022

मेरा भारत - मेरी आज़ादी


 संपूर्ण राष्ट्र आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। भारत सरकार की हर घर तिरंगा की मुहिम भी जोर पकड़े हुए है। हर संस्थान, हर मोहल्ला, हर चौराहा आजादी के रस में सराबोर दिखाई दे रहा है। कुछ लोग एकदम जुटे  हुए हैं, और डूबे हुए हैं राष्ट्र रंग में। वहीं दूसरी ओर 'इससे क्या होगा', 'उससे क्या होगा' वर्ग भी अपनी ढफली अपना राग गाता दिख रहा है, फिर चाहे कोई सुने अथवा नहीं। कुछ ऐसे भी हैं जिनके मन में ज्वार उठता है किंतु समझ नहीं आता करना क्या है। जो भी हो, स्वतंत्रता की यह वर्षगांठ अनूठी है, एक ऐसे मेले की तरह जिसमें सबके लिए कुछ न कुछ है। सनातन धर्म की यही तो विशेषता है कि सबके लिए स्थान हो और सबका सम्मान हो। युवा वर्ग के लिए इस विशेष समय के क्या मायने हैं यह समझने का भी प्रयास किया गया। कई पढ़े-लिखे नौजवान तो अभी  'डीपी' और 'फेसबुक की प्रोफाइल' पर तिरंगा लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं। जो कोई किसी संस्था से जुड़ा है उसके लिए संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम प्राथमिकता है। कुछ को इंतजार है उचित समय और उचित विचार का, जब भी दस्तक देगा उठा लेंगे कदम। कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए इस समय का उतना ही महत्व है जितना किसी जन्मदिन का होता है। 

एक वर्ग ऐसा भी है जो इस समय का उपयोग इस महोत्सव की गहराई को जानने में, स्वतंत्रता के वीरों के संघर्ष की कहानी पढ़ने में और उसके अनुसार विमर्श (narrative) बनाने में कार्यरत है। भारत की आजादी के अनेकों ऐतिहासिक कथानक हैं। इसलिए किसी एक व्यक्ति के योगदान को सर्वोपरि रखना शेष के बलिदान का अवमूल्यन होगा। यह सही समय है जब मान्यताओं को जानकारी में बदलें। मान्यताओं के आधार पर जो परिभाषाएं गढ़ी हैं उनमें जानकारी के आधार पर आवश्यकतानुसार परिवर्तन करें। आजादी लाठी चलाने से मिली है अथवा लाठी खाने से, भूखे रहने से मिली है अथवा भूख के कारण किए गए संघर्ष से, रातें काली होने से मिली है अथवा रातें काली करके, किसी एक वर्ग विशेष के कारण मिली है अथवा सामूहिकता और पारस्परिकता के  आधार पर,  यही सब जानने का यह सर्वाधिक उचित समय है। अमृत महोत्सव में अमृत मंथन भी हो और अमृत चिंतन भी हो।  गहराई में जाने पर अपने राष्ट्र एवं राष्ट्रवीरों के प्रति सम्मान से उठा हुआ हाथ वैसे ही लगेगा जैसे हवा में लहराते हुए तिरंगे को सलामी देना। अधिक जानने पर एक सहज भाव अवश्य रहेगा कि स्वतंत्रता के मतवालों के मूल में स्वयं की, समाज की एवं राष्ट्र की प्रसन्नता ही रही होगी। अपने और अपनों के चेहरे पर खुशी देखना ही उनका मुख्य उद्देश्य रहा होगा। आजादी के इस महापर्व पर आइए हम भी संकल्पित हों 
- मान्यताओं को जानकारी में बदलने के लिए 
- भारतीयता को सही मायने में अपनाने के लिए 
-अपने हिस्से के 1/145 करोड़ वें राष्ट्र की प्रसन्नता को बनाए रखने के लिए

 मैं ही भूत, वर्तमान भी और भविष्य की स्वर्णिम पहचान हूँ,
 अपनी संस्कृति को संजोए वैश्विक विकास की धारा के साथ गतिमान हूँ,
 आजादी के नारों और स्वाभिमानी धरती पुत्रों का अभिमान हूँ,
 हर कोई जिस और आशा भरी निगाहों से देख रहा, मैं वही हिंदुस्तान हूँ।

- विवेक

Sunday, May 15, 2022

उसे कौन पढ़ाएगा?


 लाल बत्ती पर गाड़ी रुकी। 10 - 12 साल का एक लड़का हाथ में पेन की गठरी लिए गाड़ी के पास आ पहुँचा। उसके एक हाथ में पेन की गठरी थी और दूसरा हाथ छोटी गुड़िया के हाथ में, शायद उसकी बहन होगी। झुलस रही गर्मी में गाड़ी के सभी शीशे बंद थे, इसलिए पता नहीं लगा कि वह क्या कह रहा था। किंतु स्वाभाविक तौर पर शायद पेन खरीदने को कह रहा होगा। मैंने उसे सुनने की कोशिश भी नहीं की, इसलिए क्योंकि भर्राती गर्म हवा में शीशा उतारने की हिम्मत नहीं हो रही थी। गाड़ी के अंदर AC 24 डिग्री पर था और बाहर का तापमान 46 डिग्री दिख रहा था। बत्ती लाल से हरी हो गई और गाड़ी आगे बढ़ गई। शीशे में मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखाई दिया जो अपनी बहन का हाथ पकड़े सड़क के एक ओर चल दिया। एक दृश्य ने न जाने कितने प्रश्न मन में खड़े कर दिए -

- क्या इतनी भी फुर्सत नहीं थी कि शीशा उतार कर उसकी बात सुन सकता?
- भीषण गर्मी में लाल बत्ती पर खड़े होकर पेन बेचना क्या इनकी चाहत है?
- आज में जीने वाले इन बच्चों का भविष्य भारत की कौन सी पुस्तक में लिखा है?
- हर आने जाने वाले को कलम बेचने वाले ये बच्चे क्या खुद भी पेन चलाते होंगे?
- पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया का नारा देखकर आगे बढ़ने वाली सरकार की निगाहें क्या कभी इन पर टिक पायेंगी?

इस सबके बीच गाड़ी ने पता नहीं कब 360 डिग्री का टर्न लिया और उन बच्चों के पास जाकर रुक गई। मेरे पास बाकी प्रश्नों के हल तो नहीं थे और ना ही केवल पैसे देकर उनके स्वाभिमान को आहत करने की मेरी कोई मंशा थी। बस उसकी पेन की गठरी को खरीद कर उसे पैसे दे दिए। इस समय उसके चेहरे पर वैसी ही खुशी दिखी जैसी कोई क्रिकेट का कप जीतने पर टीम के कप्तान के चेहरे पर दिखती है। मैं वहां से वापस अपने रास्ते यही सोचता चला जा रहा था -
सभी को लिखने के लिए पेन बेचने वाले ये हाथ क्या कभी इन्हें चला भी पाएंगे। 
यह बच्चा जिस बच्ची का हाथ पकड़े घूम रहा है, उसे कौन पढ़ायेगा? 

Sunday, January 23, 2022

प्रखर दिनचर्या

प्रखर दिनचर्या 
सुबह के 9:00 बज रहे हैं प्रखर की मां हर रोज की तरह उसे उठाने के लिए आवाज दे रही है। हर दिन की तरह ही लगभग 30 मिनट के प्रयास के पश्चात आंख खुल गई। पहले यह भी जानना जरूरी है कि प्रखर है कौन? प्रखर एक बढ़िया कॉलेज में पढ़ाई कर रहा है, कदाचित ऐसे कॉलेज में जहां तक पहुंचना विद्यार्थियों का सपना होता है। 10:00 बजे से ऑनलाइन क्लास कर लिंक जॉइन करना है, साथ-साथ नित्यकर्म भी चलते रहेंगे। नहाए तो ठीक नहीं नहाए तो भी ठीक। बस लैपटॉप लेकर बैठ जाना, वहीं जहां कुछ देर पहले आंख खुली थी। क्लास ना भी हो तो भी लैपटॉप पर "बहुत कुछ है" करने को। थोड़ी देर बाद मां उसी बिस्तर पर नाश्ता देने आई तो वही प्रतिदिन का वाक्य दोहरा दिया - "देख कल की प्लेट भी उठा कर नहीं रखी है तूने"। फिर हर दिन की भांति ही प्लेट उठा कर ले गई। दोपहर हुई तो मां ने लंच के लिए आवाज लगाई। 15-20 मिनट की आवाजों के बाद प्रखर उठा और लंच करने चल दिया। बस यही समय होता है जब लैपटॉप थोड़ी सांस ले पाता है। ये अलग बात है कि इस समय टीवी पर कुछ और चल जाता है। 1 घंटे के बाद फिर से उसी आसन में पहुंच गया जिसे कक्षा का नाम दिया गया था। शाम होते-होते मां हर दिन की तरह चिल्लाई - "थोड़ा तो घर से बाहर निकलो क्या दिन भर घर में ही स्क्रीन के आगे लगे रहते हो"। प्रखर एक अच्छे कॉलेज में हैं जहां कक्षा के अतिरिक्त बहुत सी अन्य गतिविधियां भी होती है। ऑनलाइन के समय में ये सब भी ऑनलाइन है और इनमें से हर दिन किसी एक मीटिंग में प्रखर की शाम गुजर ही जाती है। अगर कभी मीटिंग ना भी हो तो यूट्यूब, इंस्टाग्राम जैसे अन्य बहुत से माध्यम है प्रखर को व्यस्त रखने के लिए। डिनर के समय फिर से प्रखर के लैपटॉप ने राहत की सांस ली, स्किन बदल गई, TV ऑन हो गई। डिनर के बाद फिर से कक्षासन में पहुंच गया और फिर रात कितने बजे हुई किसी को पता नहीं। इस प्रकार की दिनचर्या पर मां - पिताअगर गुस्सा भी करते हैं तो प्रखर के पास अपने तर्क होते हैं।
इस समय हर घर में प्रखर है और यही दिनचर्या दिखाई भी दे रही है। जिसके घर में प्रखर नहीं वह कहानी सुनने पर या तो मां को दोष देगा या प्रखर को, किंतु इस दोष से कुछ भी सुधरने वाला है नहीं।
चिंता की बात तो यह है कि हम सभी लोग इस भ्रम में हैं कि कोविड की स्थिति ठीक होने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा और इससे भी अधिक चिंता इस बात की है कि शिक्षाविद भी राजनीतिज्ञों की भांति समय के सामने आत्मसमर्पण कर चुके हैं। कारण बहुत हैं चिंता के किंतु समाधान की भी कमी नहीं।
करना इतना भर है कि समग्र विकास की परिभाषा को संतुलन की कसौटी पर कसा जाए।

- विवेक