एक और वर्ष बीता, कोई हारा कोई जीता
किसी ने पाया किसी ने खोया, कोई मुस्कुराया तो कोई रोया |
जिसने खोया उसके लिए सागर की गहराई जैसा,
जिसने पाया उसके लिए रेत के टीले की ऊंचाई जैसा |
खोने और पाने की जद्दोजहद में बदलाव भी हुए,
कुछ को मरहम मिला तो कुछ को घाव भी हुए |
परिवर्तन का सिद्धांत तो वही है, कदाचित भाषा नयी है,
कोशिशें की भी बहुत संभालने की, नदी फिर भी उसी दिशा में बही है |
देखकर सीखें या सीखकर देखें, यही भ्रम बना रहा,
चिरंतन से चला जो आ रहा, वही क्रम बना रहा |
मैं भी बीते वर्ष के साथ, जिधर मोड़ा उधर मुड़ गया,
हाँ, इसी बीच एक वर्ष का अनुभव साथ जुड़ गया |
अनुभव एक कडवे सत्य के सामान था,
सत्य ऐसा जिसे देख मैं खुद हैरान था |
जो भी नैतिकता की चादर ओडे सदाचार सिखलाते थे,
वो वसुंधरा के ज्येष्ठ पुत्र अपना बाज़ार चलाते थे |
जिनके जीवन संघर्ष को सतत प्रणाम किया,
सोचा ये वही सितारे हैं जिनने सच का सम्मान किया |
सच की खातिर लड़ने को ही जो अपनी शान बताते है,
जब उनकी बारी आती है अपनी ही आन बचाते है |
बड़ा बनने की चाहत में वहां भी ईमान बिकते देखा,
पैसे का लेन देन ना भी हो पर स्वाभिमान बिकते देखा |
गंगाजल से दिखने वाले ये भी गन्दा पानी निकले,
चिरंतन से सुनी जा रही कहानी निकले |
बड़ा बनने की इस राह में अब मेरे सम्मुख प्रश्न खडा है,
झंझाओं के इस प्रपात में, स्वार्थ बड़ा या राष्ट्र बड़ा है |
समय रहते कदाचित इस भ्रमरजाल से मैं निकल आया,
डगमगाते क़दमों के बीच इस चकाचौंध में मैं संभल पाया ||