Saturday, November 10, 2018

मेरा इमली का पेड़

पेड़ तो कई थे गाँव में, जैसे हर जगह होते हैं,
किन्तु इमली के इस पेड़ के साथ तो न जाने कितने बचपन बीते हैं।
नदी के किनारे से बस थोड़ी दूर, हमेशा इमली से भरपूर,
हम सब मिलकर इसे सींचते थे, और फिर इसपर लटककर इमली खींचते थे।

हर दिन नदी पर एक घण्टे नहाना, इमली के इस पेड़ को थोड़ा पानी पिलाना, 
कुछ देर इसकी छाँह में बतियाना और फिर घर चले आना।

अब तो खैर बरसों बीत गए, गाँव छोड़ शहर के जो गए।

आज अचानक रमेश का फोन आया, ऐसा लगा जैसे बचपन ही लौट आया।

रमेश भी तो मेरी तरह शहर चला आया, बचपन की यादें और इमली का पेड़ वह भी वहीं छोड़ आया।

फोन पर ही तय हो गया, सपरिवार गाँव जाएंगे,
हम भी देखेंगे और बच्चों को भी हमारे उस दोस्त से रुबरु कराएंगे।

गाँव गए, सुबह हुई, नदी की ओर चल दिये,
किन्तु वहाँ पहुँचते ही समय ने एकसाथ कई प्रश्न खड़े कर दिये।

सूखा हुआ नदी का किनारा लोगों की राह निहारता ऐसा छटपटा रहा था, जैसे कोई भूखा इंसान खाने के लिए तड़फ रहा हो।

और हमारे आगमन का केंद्र, हमारा प्यारा इमली का पेड़,
वह तो नाउम्मीदी का दामन ऐसे थामे था जैसे आँसू भी सूख चुके हों,
पत्तियों की तो क्या कहें उसके तने भी मानो सूख़सूखकर ऊब चुके हों।

लेकिन हमें देखते ही उसे लगा जैसे उसकी आत्मा लौट आयी हो,
और हमको लगा जैसे हमारे ही कारण उसको मौत आई हो।

आज भी उसे तो कोई शिकायत नहीं थी, शायद उसकी हमारे लिए और हमारी उसके लिए चाहत यही थी।

बिना पूछे ही फफककर बोला,

तुम्हारे बचपन की किलकारियों के बाद, कदाचित तुम्हारे यौवन के एक बसंत के बाद,
एक वर्ष ऐसा सूखा आया, फिर पानी तो क्या कोई इंसान भी हमसे मिलने नहीं आया।

मेरी इमलियाँ तुम्हारा इंतज़ार करती रहीं, फिर एक दिन वे भी पत्तियों को साथ ले मुझे छोड़कर चली गई।

तुम्हारे शहर जाने के बाद कभी कभार, मोहन और सोहन आ जाते थे, भारी गर्मी के थपेड़ों में हमको राहत का पानी पिला जाते थे।

किन्तु सुना है अब तो व्यस्तता में ऐसे पिघल रहे हैं, उनके माँ बाप तक भी वृद्धाश्रम में पल रहें हैं।

व्यस्तता में तुम लोग परिवार की गाड़ी को जब ठीक से नहीं खींच पा रहे हो,
फिर मैं एक साधारण वृक्ष कैसे सोंचूं कि तुम मुझे सींच पा रहे हो।

मैं दबे पांव चला तो आया किन्तु ऐसा लगता है जैसे मन से आज भी वहीं हूँ,
कटाक्ष था या यथार्थ था, जो भी हो सच है कि जैसा मेरा बचपन था अब मैं नहीं हूँ।

अगर मैं वही होता तो
मेरा गाँव भी मेरा होता, नदी का किनारा भी क्यों रोता,
उस पेड़ का तो पता नहीं किन्तु संस्कृति को कदाचित ऐसे न खोया होता।