Saturday, December 31, 2011

अहसास


एक और वर्ष बीता, कोई हारा कोई जीता

किसी ने पाया किसी ने खोया, कोई मुस्कुराया तो कोई रोया |

जिसने खोया उसके लिए सागर की गहराई जैसा,

जिसने पाया उसके लिए रेत के टीले की ऊंचाई जैसा |

खोने और पाने की जद्दोजहद में बदलाव भी हुए,

कुछ को मरहम मिला तो कुछ को घाव भी हुए |

परिवर्तन का सिद्धांत तो वही है, कदाचित भाषा नयी है,

कोशिशें की भी बहुत संभालने की, नदी फिर भी उसी दिशा में बही है |

देखकर सीखें या सीखकर देखें, यही भ्रम बना रहा,

चिरंतन से चला जो आ रहा, वही क्रम बना रहा |

मैं भी बीते वर्ष के साथ, जिधर मोड़ा उधर मुड़ गया,

हाँ, इसी बीच एक वर्ष का अनुभव साथ जुड़ गया |

अनुभव एक कडवे सत्य के सामान था,

सत्य ऐसा जिसे देख मैं खुद हैरान था |

जो भी नैतिकता की चादर ओडे सदाचार सिखलाते थे,

वो वसुंधरा के ज्येष्ठ पुत्र अपना बाज़ार चलाते थे |

जिनके जीवन संघर्ष को सतत प्रणाम किया,

सोचा ये वही सितारे हैं जिनने सच का सम्मान किया |

सच की खातिर लड़ने को ही  जो अपनी शान बताते है,

जब उनकी बारी आती है अपनी ही आन बचाते है |

बड़ा बनने की चाहत में वहां भी ईमान बिकते देखा,

पैसे का लेन देन ना भी हो पर स्वाभिमान बिकते देखा |

गंगाजल से दिखने वाले ये भी गन्दा पानी निकले,

चिरंतन से सुनी जा रही कहानी निकले |

 बड़ा बनने की इस राह में अब मेरे सम्मुख प्रश्न खडा है,

झंझाओं के इस प्रपात में, स्वार्थ बड़ा या राष्ट्र बड़ा है |

समय रहते कदाचित इस भ्रमरजाल से मैं निकल आया,

डगमगाते क़दमों के बीच इस चकाचौंध में मैं संभल पाया ||

Friday, December 30, 2011

नव वर्ष मंगलमय



लेकर मशालें चल पड़ें गर राष्ट्र के निर्माण हित 


तो भ्रष्टता की हवा का रुख ही बदलता जाएगा |

नव वर्ष में गर हर युवा एक दिया बन दिखलाए तो

विकसित वतन का स्वप्न भी साकार होता जाएगा ||

नव वर्ष की अनंत शुभकामनाओ सहित   

Wednesday, December 28, 2011

नूतन वर्षाभिनंदन


 इस नए वर्ष का नव प्रकाश, फैलाये क्रांति विचारों की,

हर युवा सृजन सैनिक बनकर बारिश कर दे अंगारों की |

अंगारे ज़िम्मेदारी के, सच, स्वाभिमान, खुद्दारी के,


तब गूँज उठेगी चहुँ ओर, जय भारत माँ के नारों की ||

Friday, October 21, 2011

एक तुलनात्मक कविता

एक ऐसी कविता जो एक तुलना है, न मेरे विचार है, न मेरे शब्द हैं  | हाँ, लिखने का श्रेय फिर भी मुझे ही है |

 जो  बीत गया  वो बना  रहा ….

 जीवन  में  एक  सितारा  था
 मुझको वो  बेहद  प्यारा  था 
वो चला  गया  वो  डूब  गया 
अम्बर  का  आँगन  भी  रोया 
 जब  भी इसका  तारा  टूटा 
जब  भी  इसका  प्यारा  छूटा
मैंने  हर  टूटे  तारे  पर 
अम्बर को  रोते  देखा  है 

जो  बीत गया  वो बना  रहा ….

जीवन  में  था  वो  एक  सुमन 
थे  उस  पर  नित्य  न्योछावर  हम
वो  बिखर  गया  वो सूख  गया 
वो  प्यारा  मुझसे  रूठ  गया 
मधुबन  का  भी  तो  हाल  यही 
जब  भी  सूखी  इसकी  कलियाँ 
जब  तक  मुरझाई  खिली  नहीं 
मुरझाये  सूखे  फूलों  पर 
मधुबन  भी  शोक  मनाता  है

जो  बीत गया  वो बना  रहा ….

जीवन  मधुरस  का  प्याला  था 
 हमने  तन  मन  दे  डाला  था 
 वो  छूट  गया  वो  टूट  गया 
 मदिरालय  का  मन  भी  देखो 
जब  भी  कोई  प्याला  हिलता  है 
जब  मिटटी  मे मिल  जाता  है 
नए  प्याले  की  आहट तक 
मदिरालय भी  पछताता  है 


जो  बीत गया  वो बना  रहा ….

मृदु  मिटटी  के  जो  बने  हुए 
मधुघट  जब  फूटा करते  है 
एक  छोटा  सा  जीवन  इनका 
फिर  क्यों  ये  टूटा  करते  है 
मदिरालय  के  अन्दर  भी  तो 
मधुघट  मधु  के  ही  प्याले  है 
ये  मादकता  से  भरे  हुए 
वो  मधु  से  प्यास  बुझाते  है 
वो  पीनेवाला  ही  कैसा 
प्यालों  से  जिसको  प्यार  न  हो                                                         
जो  सच्चे  मधु  का  प्यासा  है 
वो  रोता  है  चिल्लाता  है 

जो  बीत गया  वो बना  रहा ….

Saturday, October 1, 2011

संबंधों मैं प्यार चाहिए

युग का परिवर्तन करने को अब संकल्पों का हार चाहिए

बहुत ले चुके वसुंधरा से अब उसको अधिकार चाहिए |

धरती को स्वर्ग बनाना है तो व्यक्ति नहीं परिवार चाहिए

घर घर में देवत्व जागेगा संबंधों में प्यार चाहिए ||

थकी मनुजता से समाज में घटाटोप अंधियारा छाया,

हमने अपने ही हाथों से झंझाओं का जाल बिछाया|

अपनी चिर धन लोलुपता हित संवेदना मिटा दी हमने,

खिलते से फूलों के वन में नीरसता फैला दी हमने|

अपनी स्वार्थपरकता में हम रिश्तों को बिसरा बैठे है,

वृद्धाश्रम में माँ रोती है हम अपने घर पर लेटे है |

यह वसुधा संताप कर रही अपने ही निज पोषण पर,

जिसको मधुरस से बड़ा किया अब उतर गया वह शोषण पर |

जो हमसे पूरे ना हो सके कुछ ऐसे सपने थे मन में,

अब थोप दिए संतानों पर और भेज दिया उनको रण में |

क्या ये ही है वात्सल्य छिपा, इस संस्कृति के चन्दन में,

निज अरमानो की खातिर हमने सेंध लगा दी कृन्दन में |

शायद बचपन की यह स्वतन्त्रता, इस दीपक को सूर्या बनाती,

छिपी हुई यह प्रतिभा शायद इस जग को रोशन कर पाती |

छिपी हुई इस प्रतिभा में ही कोई श्रवण कुमार मिलेगा,

कौशल्या सा त्याग हो मन में सजा राम दरबार मिलेगा |

वीर शिवाजी व्याकुल है धरती का भार उठाने को,

पर माँ जीजा सी कोख कहाँ उसको इस भू पर लाने को |

त्याग की मूरत माँ से बस इक खुशियों का हार चाहिए,

श्रेष्ठ कार्य की हो सराहना ऐसा एक परिवार चाहिए,

जहाँ स्नेह की हर पल छाया ऐसा एक संसार चाहिए,

खिलती हुई नई कलियों को कार नहीं बस प्यार चाहिए ||

Friday, January 7, 2011

नया वर्ष

नये सूर्य की नयी रश्मि सा स्वर्ण धरा पर छाया है
नूतनता की नयी सृष्टि ले नया वर्ष फिर आया है
नये वर्ष की नयी सुबह में नयी सोच और नया तेज है
नयी दृष्टि ने देखा जग को ज्यों दुल्हन की सजी सेज है
नयी प्रखरता नयी दिव्यता ऐसा लगता ज्ञान नया है
नये दिए की नयी वर्तिका, घर का हर सामान नया है
नये वर्ष के नये विश्व में तकनीकों का दौर नया है
नयी बूँद से बनने वाले सागर का इक छोर नया है
नया सफ़र और नयी डगर है पनघट की गागर भी नयी है
नये खिलोने, नयी गाड़ियाँ, बिस्तर की चादर भी नयी है
नयी कलम से बने शब्द से सजने वाले पृष्ठ नये है
पर अतीत के स्वर्ण पलों को बिसरा दे जो कष्ट नये है
नये वर्ष में नयी दूरियां, लोभ मोह का नया अँधेरा
नया धर्म और नव नैतिकता, नव झंझावातों का डेरा
मैंने देखी इक दूकान पर बदले हुए समय की छाया
सुख का जो अहसास था कभी, नयी सुबह ने है बिसराया
जहाँ अतीत के स्वर्ण पलों में पक्षी कलरव करते थे
इंतज़ार करते कुंडो का चुन चुन दाना चुगते थे
उस हरे पेड़ की हर इक शाख का क्या मदमस्त नज़ारा था
चिड़िया, तोते खेला करते खेल बड़ा ही प्यारा था
कहाँ खो गए प्यारे पन्छी नये विश्व के नये सृजन में
किसने घोला ज़हर हवा में, कलरव के उस उच्चारण में
बदला हो परिवेश पर नवपन का अहसास ना भाया
पानी भरे हुए कुंडो को इंतज़ार जब करते पाया