Thursday, March 26, 2020

तकनीक का फसाना

तकनीक का फसाना
इक दिन सागर की लहरों में मोती चुनने जा बैठा,
बारिश से भीगी रातों में तारे गिनने जा बैठा,
जा बैठा मैं इन्द्रधनुष से रंग चुरा कर लाने को,
जा बैठा मैं रश्मिरथी को ही दीपक दिखलाने को,

समाधान लेकर निकला था तकनीकों के आलय से,
भागीरथी चली हो जैसे गोमुख और हिमालय से,
मेरा मकसद था खोजूँगा समाधान तकनीकों से,
हर मुश्किल आसान करूंगा कुछ मशीनरी सीखों से,

इस विकास की अंध दौड़ में वही विजयी कहलायेगा,
जो तकनीकों की मंड़ी में खुद पहचान बनायेगा,
मेरा मकसद था मैं भी ऐसी तकनीक बनाउँगा,
अपने श्रेष्ठ प्रयासों से मैं बुझते दीप जलाउँगा,

यही सोंच निकला था मैं लेकर तकनीकों का बस्ता,
हर मुश्किल आसान करूँगा समाधान होगा सस्ता,
पहला कदम रखा था गाँवों के सुंदर गलियारों में,
खुशियाँ लेकर आउँगा मैं हर आंगन चौबारों में |

गाँव पहुंचा ही था कि एक बुजुर्ग मिल गये,

प्रस्तुत कविता उन्ही से वार्तालाप है,

जिसे वरदान समझ कर चल रहा था, मुझे लगा वही अभिशाप है।

वे बोले, लगता है तुम भी कुछ लाये हो,
अपनी तकनीकों से हमारी झोली भरने आये हो,
मेरी खुशी खुद खिलखिलाने लगी,
शुरुआत ही अच्छी सी नज़र आने लगी,
ऐसा लगा जैसे कोई मेरी राह तक रहा था,
कदाचित उसका समाधान मेरी तकनीक में ही अटक रहा था,
किंतु कुछ देर की बातचीत में ही मेरा भ्रम दूर हो गया,
तकनीक पर जो अभिमान था चूर चूर हो गया |

वे बोले, क्या तुम गाँवों की गलियों को पहचानते हो?
इन गलियों के वैभव को जानते हो?
क्या तुम्हें पता है, संस्कृति नामक मोहल्ला अब भी गाँव में ही है?
जमीन को उपजाऊ बनाने की तकनीक इन पशुओं के पाँव में ही है?
अरे बेटा, हम सब मस्त थे, हम सब खुश थे अकेले में,
हमारी अगली पीढ़ी ही उदास सी बैठी है तकनीकों के झमेले में,

सुनो, तुम्हें लेकर चलता हूँ उन यादों के झरोखों में,
शायद कुछ पानी छलके तुम्हारी भी पलकों में,

गलती को तो हमने बार बार दोहराया है,
खुशियों के लालच में कितनी ही बार अपनों को गंवाया है,
मुगलों ने लालच दिया, आक्रांता बन छा गए,
हमारे ही घर में घुसकर, हमको ही चूना लगा गए,
हमारा अभिमान, हमको अपमानित कर गया
हमारा लालच, अपने ही भाईयों के लिए मन में ज़हर भर गया,
पड़ौसी के घर में लगी आग पर तालियाँ बजाने लगे,
फिर उसी आग की लपटों से अपने ही घर में मातम मनाने लगे,
वो तो अच्छा है हम उस संस्कृति के दामन में हैं,
जो आदमी के नहीं बल्कि ईश्वर के संरक्षण में है,
हम बच गए और बढ़ गये,
क्योंकि हमारे कुछ पुरखे संस्कृति को बचाने लड़ गए,
सब कुछ ठीक होता इससे पहले ही हमने इतिहास दोहराया,
अंग्रेजों के दिये लालच के सामने खुद को बौना पाया,
हमारे ही घर में घुसकर हमको लूट लिया,
शहीदों की शहादत पर हमने फिर से ज़हर का घूंट पिया,
रक्त की बूंदों से रक्तरंजित हिंदुस्तान हो गया,
मातृभूमि का एक टुकड़ा पाकिस्तान हो गया,
खो गये थे हम मगर पहचान बाकी रह गयी,
लुट गया सब संस्कृति की शान बाकी रह गई,
गांधी, आज़ाद, भगत जैसे अनगिनत यौद्धा थे,
राष्ट्र की पहचान सहेज कर रखने वाले पुरोधा थे,
फिर से बच गये राष्ट्र और राष्ट्रीयता,
सैंकड़ों कुर्बानियाँ देकर बची थी अस्मिता,
मगर हम तो कालिदास के देश में रहते हैं,
खुद अपनी ड़ाली काटने वाले को महाकवि कहते हैं,
इस सदी ने अपनी वही आदतें दोहराई,
घुसपैठियों की भीड़ उसी आदत के कारण हमारे घर में फिर घुस आई,
बीती सदियों तक आक्रांता शरीरधारी थे,
इस सदी के दानव सम्पूर्ण मनुष्यता पर भारी थे,
हमारे धैर्य का इम्तहान था,
सामने समय बचाने वाला तकनीकी समाधान था,
यह तकनीक रूपी अमानवीय चिन्तन हमें इतना भाया
अब तक हम घुसपैठियों के सामने केवल झुकते थे, इस बार पूरा शीर्षासन लगाया,
व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक विकास के नाम पर,
तकनीकें भारी पड़ने लगी, परिश्रम से किये गये काम पर
लोभ और लालच के चश्मे ने दूर दृष्टि छीन ली,
अधिक पाने की चाह ने मेहनत से बनाई हमारी सृष्टि छीन ली,
तकनीकों के स्वागत में हमनें पलकें तक बिछा दी,
जो भी बाधाएं आई, चुटकियों में हटा दी,
बदले में जो मिला उसे दिवालियापन कह सकते हैं,
जिनके पास थोड़ा बहुत था उन्हें अब निर्धन कह सकते हैं,
छीन लिया जमीन का उपजाऊपन,
पशुओं के भीतर का छिपा हुआ धन,
पक्की सड़क बनी तो शहर हुआ करीब,
मोची, खाती, दर्जी सबके सब हुए गरीब,
और तो और बाल भी शहर जाकर कटते हैं,
जो पैसे गांव में रह जाते थे, अब शहर में ही बंटते हैं,
तुम्हारी तकनीक के कारण पानी के लिए दूर तो नहीं जाना पड़ता,
किंतु मेरे गांव के मीठे पानी का कुंआ खुद ही अपनी किस्मत से लड़ता,
तुम कहते हो हमारे पास संसाधन नहीं थे,
अरे, बिना संसाधनों के भी हम निर्धन नहीं थे,
किसी एक के घर की खुशी सबके चेहरे पर होती थी,
मातम किसी के भी घर में हो, हर आंख रोती थी,
माना, तन की दिखाई देने वाली बीमारियाँ काबू में आयी है,
पर बदले में मन ने न दिखने वाली कितनी ही झंझाएं पायी है,
अपना खेत था, अपना खलिहान था,
हम सबका एक मैदान था,
वो नदी पर नहाकर खेलने जाना,
बारिश में भीगकर जोर से चिल्लाना,
होली में एक साथ सबको रंग लगाना,
दीवाली पर किसी के भी पटाखे चलाना,
क्या बतायें, अब तो त्यौहारों की बधाई तक तकनीकी हो गयी है,
मेहमानों के इंतज़ार में मिठाई तक फीकी हो गई है,
शहर में रहने की इच्छा या अधिक पाने की चाह,
हमारी अगली पीढी को नहीं भाती अब गांव की पनाह,
यह सच है कि तकनीक के इस दौर में जीना आसान हो गया है,
किंतु तकनीकें खरीदते खरीदते इंसान खुद एक सामान हो गया है,
थोड़ी सी जमीन के कारण अपने ही घर में लहुलुहान हो गया,
संवेदना के अभाव में अब हर घर एक मकान हो गया,
गरीबी मिटाने के सपने में आम आदमी इस कदर लुटा है,
जिसके पास पैसा, तकनीक उसी की और वही ऊपर उठा है,
बिना पसीने निकाले काम करने की तकनीक हमको ऐसी भाने लगी है,
खेतों खलिहानों में काम करने में अब शर्म आने लगी है,
पहले तो आज़ादी मिल भी गई थी,
मुरझाई हुई कलियाँ खिल भी गई थी,
उस समय, गुलामी की बेड़ियों में जकड़ने वाले सामने खडे थे,
हम अपना साहस और वो अपनी मंशा लिए अड़े थे,
आज तो ऐसी महाभारत है जिसमें दोनों ओर हम ही हैं,
तकनीकी दासता के संवाहक भी हम और ग्राहक भी हम ही हैं,
तुम्हारी ही भाँति एक बार एक पढे लिखे ने हमको समझाया था,
वही जो पहली बार तकनीकी जादू लेकर आया था,
यह विज्ञान के बड़े प्रयोग हैं, आपके बड़े काम आयेंगे,
अब लगता है वे प्रयोग हमारे नहीं, हम ही उनके काम आयेंगे,
बोला था, हमारे ये प्रयोग वो दीपक हैं जो हर घर को रोशन कर देंगे,
समय भी बचेगा और सब की झोली खुशियों से भर देंगे,

इस तकनीकी सदी में हमने क्या पाया यह तो हम नहीं जानते हैं,
किंतु वह बचा हुआ समय और खुशियों की झोली आज भी तलाशते हैं।

2 comments:

  1. You have a few wonderful thoughts hidden in this poem. I wish a few might read and move on those. As written in the profile, keep writing. By the way poem is fantastic.

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  2. wow sir, these are great thoughts

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