क्या मैं "वही" शिक्षक
हूँ?
क्या
मैं "वही" शिक्षक हूँ जिसकी गोद में प्रलय और निर्माण दोनों पलते हैं? वह
जो एक राजा को भरी सभा में खुली चुनौती देकर भारत की अखंडता का प्रण लेता है। वही हठी
कौटिल्य जो अपने शिष्यों को माँ भारती का ऐसा ओजस्वी चित्रण प्रस्तुत करता है जिससे
शिष्य के भीतर निहित संभावनाएं भारतीयता के उन्मुक्त शिखर पर पहुँचने को मचलने लगती
हैं।
क्या
मैं वही शिक्षक हूँ जो शिष्य के भीतर छिपी प्रतिभा को निखारने एवं उसे राष्ट्र निर्माण
की धारा से जोडने का रत्ती मात्र भी कार्य कर रहा हूँ? स्वामी विवेकानंद के अनुसार
तो शिक्षा अन्तर्निहित क्षमताएं ही हैं, और ऐसे में मेरा (शिक्षक का) तो कार्य ही उन
क्षमताओं से शिष्य का परिचय कराना है।
क्या
मैं वही शिक्षक हूँ जिसकी गरिमा इतनी उच्च थी कि भारतीय गणतंत्र का प्रथम व्यक्ति स्वयं
के लिए वही संबोधन चुनता है?
क्या
वही हूँ मैं, जो डॉ राधाकृष्णन को अपनी समस्त योग्यताओं और विभूतियों के श्रेष्ठ संबोधन
के रूप में दिखाई पडता है? क्या मैं ही सपनों को अपना बनाकर उनके साथ जीने की राह बताने
वाला कलाम हूँ?
क्या
मैं उसी वंश का वंशज हूँ जिसमें रवीन्द्रनाथ टैगोर, सावित्री बाई फुले, आशिमा चटर्जी
और डॉ प्रणव पन्ड्या जैसे श्रेष्ठ विचारक रहे हैं? परिवर्तन की चाह पैदा कर उसकी राह
दिखाने वाला, क्या मैं वही शिक्षक हूँ?
जी हाँ, हूँ
तो मैं वही, उसी माँ वाणी का ज्येष्ठ पुत्र जो श्रेष्ठ सृजन के लिए बसंत के मौसम की
भाँति सदा लालायित रहता है।
अन्तर
इतना भर आ गया है कि जिस राजनीति को हस्ताक्षर बनाकर मैने कभी चाणक्य बन शंखनाद किया
था, आज उसी राजनीति के कुछ हस्ताक्षरों ने मुझे मोहरा बना रखा है। मेरा स्वाभिमान,
मेरा उत्साह, उमंग, विचार, भाव, क्रियाशीलता जैसे गुण मेरे स्थानांतरण अथवा मेरी पदोन्नति
हेतु रिश्वत के रूप में दिए जा चुके हैं। मेरी गलती इतनी अवश्य रही कि मैने शिक्षक
के पद को गुरु की पदवी के स्थान पर एक नौकरी की संज्ञा दे डाली। कदाचित इसीलिए मुझे
भी दूसरे नौकरशाहों की तरह आरामपसंद जीवन जीना और शाही ठाठ बाठ अच्छे लगने लगे।
मेरा
"शुभ" भी "लाभ" में बदल गया, और इससे पहले कि मैं संभल पाता, मेरे
कुल के कुछ दीपकों ने इसे "लाभ" से "लोभ" में बदल दिया।
वे वंशज
जिन्हें राजनीति ने मोहरा बना कर रखा था, अब लोभ के कारण धनवानों की भी दहलीज पर सर
झुकाए खडे दिखाई देते हैं। मेरे कुल का जिन्हें गौरव होना था अब वे ही कौरव बने बैठे
हैं। मुझे दुख है कि महाभारत के उस समय की भाँति आज भी इनकी संख्या अधिक होने के कारण
ये ही मेरी पहचान भी बने बैठे हैं।
किन्तु
मुझे विश्वास है, मेरे तरकश पर, जिसमें सद्गुणों के तीर भरे हुए हैं। बस कुछ समय और,
फिर एक ज्ञान की गंगा बहाने वाला कृष्ण मुझे मेरे कर्मपथ की याद दिलाएगा। मेरे तरकश
में रखा एक-एक तीर सद्गुण की भाँति बाहर निकलकर एक बार पुनः भारत को महाभारत बनाएगा।
मैं मुक्त हो जाउँगा, राजनीतिकों की जंजीर से और धनवानों की दहलीज से।
ऐसा
भी नहीं है कि इस समय बैठा मैं अपने कृष्ण का इंतजार ही कर रहा हूँ। मैने तो अपना कार्य
आरंभ कर दिया है, उसी प्रकार जिस प्रकार उस काल में किया गया था। मैं भी इस समय के
धर्म अर्थात मानवता की रक्षा हित तैनात मेरे साथियों (शिक्षकों) को एकजुट करने में
लगा हूँ। मेरी तैयारी चरम पर है, मैं अपने तरकश के तीर भी एकत्रित कर रहा हूँ, और ऐसे
साथी भी इकट्ठे कर रहा हूँ जो इस आध्यात्मिक विचारधारा के समर्थक हैं।
योगेश्वर
के आने भर की देर है, वे ही भावी महाभारत हेतु मुझमें विश्वास जगाएंगे। मानवतावादी
धर्म पुनः स्थापित होगा और मैं पूर्ण आत्मविश्वास, संपूर्ण मनोबल और सभी शक्तियों को
एकत्र कर उद्घोष करूँगा -
"जी
हाँ, मैं वही शिक्षक हूँ"।
जी हाँ। मैं वही शिक्षक हूँ।
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