Monday, January 2, 2012

शिक्षा


माँ वाणी का ह्रदय अंश मैं, शब्दों की परिचायक हूँ,

शिक्षा मुझको नाम मिला मैं संस्कृति का नायक हूँ |

मैं ब्रह्मा  का ब्रह्मज्ञान  हूँ, नारायण का दिया दान हूँ,

जिसको पूजा जटारूप में, मैं शंकर का दिव्य भान हूँ |

मैंने ही संस्कार दिए हैं, धर्म कर्म त्यौहार दिए हैं 

वसुंधरा के हर ज़र्रे को मौलिक हर अधिकार दिए हैं |

बिन मेरे भगवान अधूरा, वेदों का भी ज्ञान अधूरा,

उपनिषदों और आर्षग्रंथ को, मिला है जो सम्मान अधूरा |

मैंने पूर्ण किया भाषा को, हर बच्चे की अभिलाषा को,

अन्धकार से घिरी निशा में, जलते दीपों की आशा को |

मुझसे ही तो है कुरान, गुरु के ग्रंथों का ग्रंथज्ञान,

हो बाइबिल का शब्द शब्द, चाहे गीता का  ब्रह्मज्ञान  |

रामचरित हो तुलसी की या बाल्मिकी रामायण हो,

वेदव्यास की रचित कथा या किसी छंद का गायन हो |

तक्षशिला का मैं हूँ चेहरा, नालंदा के सर का सेहरा,

रामकृष्ण की इस धरती पर गौरवमयी इतिहास है मेरा |

बिन मेरे बोलो राम कहाँ, माँ मीरा का घनश्याम कहाँ,

नानक कबीर के दोहों का, मेरे बिन कोई दाम काम कहाँ |

आज़ादी हासिल करने जब वीरों ने कलम संभाली थी,

उस हवनकुंड की अग्नी में मैंने भी समिधा डाली थी |

जब सजा तिरंगा दिल्ली पर, वीरों की अमर कहानी का,

वह उत्सव था आजादी का, हर हर्षित हिन्दुस्तानी का |

मैं अपने को बहला न सकी, थी कोने में खामोश खड़ी,

क्या हट पायेगी मुझ पर से, जो पाश्चात्य की परत चढी |

मैं जुदा हो गयी विध्या से, अब मन अन्दर तक रोया है,

पहचान गयी तो गम न था, अब स्वाभिमान भी खोया है |

अब रामानंद का राम बचा वह तुलसी का श्रीराम कहाँ,

क्या होगा पूजा स्थल का अब रजनी है घनश्याम कहाँ |

वह पतिव्रता पांचाली अब तो चीर हरण में दिखती है,

माता सीता के चित्रों संग बस अगरबत्तियां बिकती है |

मैं गंगाजल सी थी पवित्र, था श्वेत धवल मेरा चरित्र,

अब जो प्रतिवेश मिला मुझको, अपनों में मैं लगती विचित्र |

मेरे मंदिर के गलियारे अब सुस्त दिखाई पड़ते है,

बच्चे मस्ती करते थे जहाँ, शिक्षक आपस में लड़ते हैं |

मेरी गरिमा का ह्वास हुआ, मेरे अपने ही आँगन में,

अब संस्कृति की झलक कहाँ, प्यारे बच्चों के क्रंदन में |

गांधी पूछो तो राहुल है, और अजय बना है भगत सिंह,

गुरु तेगबहादुर भूल गए, सरदार याद हरभजन सिंह |

जब कलमकार ही भूल गए, सद्ज्ञान हूँ में सामान नहीं,

जिनने फूलों में रखा मुझको, उनको भी मेरा भान नहीं |

मैं कठपुतली सी बन बैठी, अपने ही कैद विचारों में,

मेरे अपने ही जनक थे जो अब बेच रहे बाजारों में |

थी संस्कारों की वह होली, रस की फुहार, रंगों का प्यार,

अब फूहड़ता ने बदल दिया, उस सुखद पर्व का वह खुमार |

मेरी दीवाली दीपसजित हर और था खुशियों का प्रकाश,

अब मन अंधियारा दिखता है, आतिश से भले जलता आकाश |

थी मैं ममता, करुणा,  समता, संबंधों की मैं स्नेहलता,

अब झंझाओं के घोर प्रलय में, शेष रह गयी चंचलता |

थे नैतिक मूल्यों की खातिर जो मिटने को तैयार खड़े,

मानवता की रक्षा के हित जो शिक्षक हर दीवार चढ़े |

अब वे ही मेरे परम पूज्य, मुझको शर्मिंदा करते हैं,

संस्कृति की भाषा झुठलाकर, मेरा घर गंदा करते हैं ||

1 comment:

  1. aaj apke dwara likhi hui sabhi kavitae padhi. INSPIRING . THANK YOU. _/\_

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