जिंदगी क्या नाम दूँ तुझे, कैसे परिभाषित करूँ....
कैसे कहूं कि तू इक खुली किताब है...
शायद कभी सोंचा भी हो, मन की अभिलाषा भी हो,
कभी झूंठ के दामन को छूने नही दूँगा, कठिनाइयों का सागर भी हो तो सह लूँगा,
चमकते उस ध्रुव की तरह, दमकती चांदनी की तरह, सत्यता और पवित्रता की चमक को बनाये रखूंगा,
श्वेत झरने की तरह, बहती नदिया की तरह, निर्मलता को मन में संजोये रखूंगा...
किंतु आज इस ज़माने की हवा मुझे भी लग गयी,
मेरा स्वाभिमान मेरी सच्चाई हवा के साथ बह गयी....
जमाने की हवा ने मुझे भी हिला दिया, सत्यता के मार्ग से इस आत्मा को डिगा दिया...
जहाँ भी गया, दो रास्ते दिखायी दिए,
सच और झूंठ, दोनों नए थे मेरे लिए...
जो आसान था उधर ही चल दिए, सच ने एक बार फिर नैन भिगो लिए॥
सब कुछ मिला, मिलता ही रहा, खुशियों का उपवन फलता ही रहा,
न था तो सिर्फ़ सत्य और स्वाभिमान, इंसानियत और स्वयं की पहचान...
आज इस मोड़ पर आकर, एक सच्चे स्वाभिमानी को पाकर...
दुःख के बादलों ने खुशियों की रौशनी को मिटा दिया,
जलते हुए दिए को हवा के इक झोंके ने अन्धकार बना दिया॥
हिम्मत नही थी की नज़र भी मिला सकूं....
आज लगा की ऐ जिंदगी, जो वादा किया था तुझसे, मै पूरा न कर सका,
तुझे इस दलदल में डालकर, मै सबकुछ हार गया...
काश की उस पहले दोराहे पर, उस जिंदगी के मोड़ पर,
मन की संवेदना का स्वर मैं सुन पाता,
तुझे भी नाम दे पाता, मै भी मनुष्य बन जाता॥
behatrin rachna
ReplyDeleteRachna padhee to aap behtareen insaan nazar aaye..tahe dilse swagat hai!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना है। ब्लाग जगत में द्वीपांतर परिवार आपका स्वागत करता है।
ReplyDeletepls visit....
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